डॉ रजनीश कुमार झा
मुंबई जाकर हीरो बनने की थी चाहत…लाहौर में संगीत सीखने का था जुनून और फिर इश्क में सबकुछ गंवाकर संगीत पाने का नाम ही ख्य्याम है…ख्य्याम की तरह का संगीत रचने वाला कोई दूसरा फ़नकार नहीं हुआ
ख़्य्याम के एल सहगल के जबर्दस्त फैन थे..खय्याम का पूरा नाम मोहम्मद जहूर खय्याम हाशमी था, लेकिन संगीत और बॉलीवुड जगत में उन्हें खय्याम के नाम से प्रसिद्धी मिली। उनका जन्म अविभाजित पंजाब के नवांशहर में 18 फरवरी 1927 में हुआ था।ख्य्याम का रुझान बचपन से ही संगीत से था। वो फिल्म देखने के शौकीन थे। कई बार को घर से भागकर फिल्म देखने चले जाते थे। उनकी इस आदत से उनके घर वाले परेशान रहा करते थे। सिर्फ 10 साल की उम्र में ही उन्होंने अपना घर छोड़ दिया और फिल्मों में किस्मत अपनाने के लिए अपने चाचा के घर दिल्ली आ गए।
ख्य्याम जिनकी मधुर धुनों ने लाखों लोगों को अपना दीवाना बनाया वो बचपन में संगीतकार नहीं बल्कि अभिनेता बनना चाहते थे। उन्होंने छोटी उम्र में ही फिल्मों में काम करने का धुन पकड़ लिया और अपना घर छोड़कर चाचा के घर दिल्ली आ गए। उनके चाचा ने जब उनके भीतर संगीत और अभिनय को लेकर रूचि देखी तो उनका दाखिला संगीत स्कूल में करवाया। उन्हें संगीत सीखने की अनुमति दी।ख्ययाम ने संगीत का प्रारंभिक शिक्षा पंडित इमरनाथ, पंडित हुस्नलाल-भगतराम ले ली। इसी दौरान उनकी मुलाकात पाकिस्तान के मशहूर संगीतकार जीएस चिश्ती से हुई, जिन्होंने उनके संगीत धुन को सुनते ही उन्हें अपना सहायत रख लिया। इसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।
ख्य्याम साहब के करियर की शुरुआत साल 1947 में हुई। खय्याम ने पहली बार फिल्म ‘हीर रांझा’ में संगीत दिया। इस फिल्म में भले ही उन्होंने बॉलीवुड में एंट्री की, लेकिन उन्हें पहचान मिली मोहम्मद रफ़ी के गीत ‘अकेले में वह घबराते तो होंगे’। इसके बाद उन्होंने फिल्म ‘शोला और शबनम’ में संगीत दिया, जिसे लोगों ने खूब पसंद किया। खय्याम और साहिर की जोड़ी बॉलीवुड में मशहूर हो गई।
ख्य्याम साहब ने एक साथ कई फिल्मों में संगीत दिया। इसके बाद उन्होंने अपनी पत्नी जगजीत कौर के साथ ‘बाज़ार’, ‘शगुन’ और ‘उमराव जान’ में काम किया, जिन्होंने उन्हें नई बुलंदियों पर पहुंचा दिया।फिल्म ‘कभी कभी’ और ‘उमराव जान’ जैसी फिल्मों के लिए उन्हें फिल्मफेयर का अवॉर्ड मिला। उनके यादगार गीतों में ‘वो सुबह कभी तो आएगी’, ‘जाने क्या ढूंढती रहती हैं ये आंखें मुझमें’, ‘बुझा दिए हैं खुद अपने हाथों, ‘ठहरिए होश में आ लूं’, ‘तुम अपना रंजो गम अपनी परेशानी मुझे दे दो’, ‘शामे गम की कसम’, ‘बहारों मेरा जीवन भी संवारो’ जैसे अनेकों गीतों में अपने संगीत से चार चांद लगा दिए।इन सदाबहार संगीत के लिए ख्य्याम हमेशा लोगों के दिलों में जिंदा रहेंगे। जब जब ये धुन लोगों के कानों में सुनाई देगी उनकी यादें लोगों को फिर से ताजा हो जाएंगी।
ख़्य्याम के जीवन में उनकी पत्नी जगजीत कौर का बहुत बड़ा योगदान रहा जिसका ज़िक्र करना वो किसी मंच पर नहीं भूलते थे.अच्छे ख़ासे अमीर सिख परिवार से आने वाली जगजीत कौर ने उस वक़्त ख़य्याम से शादी की जब वो संघर्ष कर रहे थे. मज़हब और पैसा दोनों के बीच दीवार न बन सका । ख्य्याम को याद करते समय जगजीत कौर जी का जिक्र होना लाजिमी है ….क्योकि संगीत में संयम और ठहराव का जो जिक्र आपने कानो में ख्य्याम के गूंज रहा है वह जगजीत के बगैर संभव नही नहीं पाता
ख़य्याम ने 70 और 80 के दशक में कभी-कभी, त्रिशूल, ख़ानदान, नूरी, थोड़ी सी बेवफ़ाई, दर्द, आहिस्ता आहिस्ता, दिल-ए-नादान, बाज़ार, रज़िया सुल्तान जैसी फ़िल्मों में एक से बढ़कर एक गाने दिए. ये शायद उनके करियर का गोल्डन पीरियड था.।कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता / कहीं ज़मीं तो कहीं आसमां नहीं मिलता / जिसे भी देखिए वो अपने आप में गुम है / ज़ुबां मिली है मगर हमज़ुबां नहीं मिलता”…1981 में इस गीत को संगीत ख्य्याम ने ही दिया । इतना ही नहीं उन्होंने मैं पल दो पल का शायर हूँ का भी संगीत दिया है। लेकिन कहना गलत नहीं होगाी कि ख्य्याम साहब… आप पल दो पल के नहीं सदा के लिए हैं