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डायरेक्टर बिमल रॉय… नाम ही काफी है

डायरेक्टर बिमल रॉय… नाम ही काफी है। ये नाम हिंदी सिनेमा के उस महान निर्देशक का है… जिसकी एक फिल्म दो बीघा जमीन ने ही दुनियाभर में तहलका मचा दिया। उन्होंने बंगाली और हिंदी भाषा में कई फिल्में बनाई हैं। बिमल रॉय की अहम फिल्में परिणीता, बिराज बहु, मधुमती, सुजाता,देवदास, नौकरी , परख, बंदिनी भी शामिल हैं। उस दौर में इन फिल्मों को अलग अलग कैटेगरी में अवॉर्ड दिया गया था।

वो डायरेक्टर जिनका अंदाज़-ए-बयां था सबसे जुदा..नाम था उनका बिमल दा..ऐसे निर्देशक जिन्होंने बॉलीवुड में सामाजिक और यथार्थवादी फिल्मों की नींव रखी…उन्होंने कलकत्ता के न्यू थियेटर प्राइवेट लिमिटेड में बतौर कैमरा असिस्टेंट करियर की शुरुआत कीबिमल रॉय की जब भी बात होती है तो मधुमति, परिणीता, सुजाता, बंदिनी, देवदास और यहूदी जैसी फिल्मों का जिक्र होता है… जिन्होंने भारतीय सिनेमा के प्रति लोगों का नजरिया बदल दिया…

12 जुलाई 1909 को बिमल दा का जन्म ढाका के सुआपुर गांव में हुआ… जो अब बांग्लादेश में है… वे एक जमींदार परिवार से ताल्लुक रखते थे,पढ़ाई करने के बाद वे फिल्मों में काम करने के लिए कलकत्ता चले गए। वहां न्यू थियेटर्स स्टूडियो में कैमरा असिस्टेंट बन गए, 1935 में फिल्म देवदास में निर्देशक पी. सी. बरुआ को असिस्ट किया..इसमें कुंदनलाल सहगल हीरो थे… संयोग देखिए कि बीस साल बाद 1955 में बिमल दा ने दिलीप कुमार को लेकर देवदास फिल्म बनाई

हालांकि इससे पहले बिमल दा ने 1944 में अपनी पहली फिल्म बांग्ला में बनाई…नाम था उदयेर पाथे , बाद में इसे… हमराही… नाम से हिंदी में रिलीज किया गया था। फिल्म की कहानी अनूप नाम के एक बेरोजगार लेखक की कहानी थी जो एक धनी उद्योगपति के लिए भाषण लिखता है. लेकिन बाद में वो उद्योगपति उसके अप्रकाशित उपन्यास अपने नाम से प्रकाशित करवा लेता है. ये विचारधारा, अधिकार और ताकतवर का सामना करने की लड़ाई बन जाती है. इसमें रविंद्रनाथ टैगोर के तीन गाने थे. इसमें पूरा जन गण मन भी था जो बाद में भारत का राष्ट्रगान बना.

उस दौर में थे तो वे जमींदार के बेटे पर उनकी फिल्में किसी भी तरह की असमानता के खिलाफ हुआ करती थीं..{ gfx in} बिमल दा 1950 में मुंबई आ गए थे. उनके साथ पुरानी टीम के फिल्म एडिटर ऋषिकेश मुखर्जी, म्यूजिक कंपोजर सलिल चौधरी, सिनेमैटोग्राफर कमल बोस भी थे. दो साल बाद उन्होंने फिल्म मां बनाई. एक पोस्टमास्टर, उसकी पत्नी और दो बेटों की कहानी थी. पोस्टमास्टर जमींदार के यहां काम करता है. कई मोड़ से गुजरते हुए अंत में ये एक मां और बेटे की भावुक कहानी बन जाती है{ gfx out}

दो बीघा जमीन … एक ऐसी फिल्म जिसने बिमल रॉय को अमर कर दिया. ये फिल्म 1953 में आई थी. फिल्म की कहानी एक सीधे सादे किसान शंभू महतो पर केंद्रित है। अपने बूढ़े पिता गंगू, पत्नी पारो , बेटे कन्हैया और खेती की दो बीघा ज़मीन के साथ गांव में रहता है. अकाल पड़ता है. पर ये परिवार गुजारा करता है. बुरा वक्त कटता है. कुछ वक्त बाद बरसात होती है और पूरे गांव के किसान हर्ष में नाचते-गाते हैं. इस गांव में जमींदार है जो पूंजीवादी आदमी है और शहर के एक कारोबारी के साथ मिलकर गांव में मिल लगाना चाहता है. लेकिन उसके मुनाफे की राह में शंभू की दो बीघा जम़ीन है..फिल्म की कहानी सलिल चौधरी ने 1940 में लिखी थी…नाम था रिक्शावाला …सलिल चौधरी वैसे तो संगीतकार थे… लेकिन उनकी कहानी बिमल दा को इतनी पसंद आई कि उन्होंने उस पर फिल्म बना दी… उस पर बलराज साहनी ने अपने अभिनय से फिल्म को और बुलंदियों पर पहुंचा दिया… इस फिल्म से बिमल दा ने इतिहास रच दिया… देश के साथ-साथ फिल्म को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी खूब वाह-वाही मिली…

बिमल दा की एक फिल्म थी नौकरी…ये फिल्म भी सबसे अलग थी. 1954 रिलीज हुई नौकरी तब के दौर की बड़ी जरूरत थी..


1959 में फिल्म आई सुजाता…इस फिल्म में जाति व्यवस्था के खिलाफ टिप्पणी के अलावा सुजाता और अधीर के रिश्ते का चित्रण इतना निर्मल और मासूमियत भरा है कि सौ साल बाद यकीन नहीं होगा कि प्रेम यूं भी होता था. सुजाता अपने दौर में एक बहुत सशक्त संदेश वाली फिल्म थी.

इस फिल्म को लेकर प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू ने 1959 में बिमल रॉय को लिखा था..ऐसी फिल्में जिनका नैतिक इरादा बहुत ज़ाहिर होता है, उनके साथ सुस्त बन जाने का खतरा हमेशा होता है. लेकिन मैं पाता हूं कि सुजाता में इस त्रुटि को टाल दिया गया है और इस विषय से बर्ताव करते हुए बहुत संयम रखा गया है

भारत की आजादी के कुछ एक दशक बाद ही 1960 में बिमल रॉय ने परख का निर्देशन किया. पिछली फिल्में जितनी गंभीर थी, ये फिल्म उतनी ही हल्की-फुल्की. लेकिन इसकी कहानी बहुत सॉलिड थी…बिमल रॉय की एक और फिल्म 1963 में आई . फिल्म थी बंदिनी..जेल में एक गंभीर अपराध के लिए बंद है कल्याणी जिससे सब नफरत करते हैं. उसी दौरान जेल में एक प्रगतिवादी विचारों वाला डॉक्टर आना शुरू करता है. समाज की नैतिकता वाली लकीरों को वो ज्यादा नहीं गिनता. वो कल्याणी के व्यक्तित्व पर रीझ जाता है. उसे पता है कि इससे बेहतर जीवनसाथी उसे कहीं नहीं मिलेगी. लेकिन कल्याणी नहीं मानती.

कहते हैं इस फिल्म का गीत मोरा गोरा अंग लई, मोहे श्याम रंग दई दे … गुलज़ार के फिल्मी जीवन का पहला गीत था। इसके फिल्मांकन के दौरान भी काफी बहस हो गई, बिमल रॉय का मानना था कि कल्याणी जैसी लड़की जो घर की चारदीवारी में ही ताउम्र रही है…संकोची है…वो घर से बाहर जाकर कभी भी गाना नहीं गाने वाली है। इस पर संगीतकार एस. डी. बर्मन ने कहा कि अगर वो घर से बाहर नहीं जाएगी तो क्या अपने पिता के सामने रोमांटिक गाना गाएगी ? काफी चर्चा के बाद फिर राय यह बनी कि कल्याणी बरामदे में घूमते हुए ये गाना गाएगी क्योंकि सांझ ढलने के बाद उस जैसी लड़की का घर से बाहर जाना संभव ही नहीं है।

कुल मिलाकर एक ऐसे दौर में जब हिंदी फ़िल्मों में धार्मिक और ऐतिहासिक विषयों का बोलबाला था, बिमल रॉय ने अपने आप को सिर्फ़ सामाजिक और उद्देश्यपूर्ण फ़िल्मों तक सीमित किया। अपनी फ़िल्मों में किसान, मध्यवर्ग और महिलाओं के मुद्दों को अहमियत देते हुए प्रमुखता के साथ उठाया। बिमल दा ने अपने समय के ज्वलंत सवालों से कभी मुंह नहीं चुराया। बिमल रॉय ने प्रसिद्ध साहित्यिक कृतियों पर भी लाजवाब फ़िल्में बनाईं। चुस्त कथा-पटकथा-संवाद, उत्कृष्ट फिल्मांकन और मधुर गीत-संगीत कमोबेश उनकी सभी फ़िल्मों की पहचान है। सच बात तो यह है कि बिमल रॉय के बिना हिंदी सिनेमा की कल्पना भी नहीं की जा सकती।

gulzar sahab हैप्पी बर्थडे सचिन