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अब ये छोड़ दिया है तुझपे, चाहे ज़हर दे या जाम दे…भारत(INDIA) की पहली महिला कव्वाल..शकीला बानो भोपाली


अब ये छोड़ दिया है तुझपे, चाहे ज़हर दे या जाम दे

ये ग़ज़ल फिल्म हमराही से है, इसे कागज़ पर उतारने वाली… और अपनी दिलकश आवाज़ से बेशुमार चाहने वालों तक पहुंचाने वाली… शकीला बानो भोपाली का यही अंदाज… उनके कद्रदानों की महफिल को आज भी रोशन कर रहा है। शेरो-शायरी के अपने हुनर से शकीला बानो ने जो राह चुनी, उसे हर्फ दर हर्फ, लफ्ज़ हर लफ्ज़, वो तराशती रहीं, जिससे उन्हें पहचान मिली… शोहरत मिली… और वो नाम मिला, जिसकी वो हकदार रहीं। शकीला बानो भोपाली को न सिर्फ हिंदुस्तान की पहली महिला कव्वाल के तौर पर शोहरत मिली, बल्कि फिल्म संगीत में कव्वाली को सही मायने में पहचान… उनकी सर-परस्ती, उनकी सोहबत में ही हासिल हुई।

शकीला बानो का जन्म 9 मई 1942 को, अदब…इल्म और रवायतों के शहर भोपाल में हुआ। वालिद अब्दुल रशीद खान और उनके भाई अब्दुल कदीर खान भोपाल के मशहूर शायर थे, लिहाज़ा बचपन से ही शेरो-शायरी से जो नाता बना वो शकीला ने ताउम्र निभाया। शकीला अपने वालिद के मुशायरों में उनके साथ जाती, कुछ सुनती, कुछ सीखती… और धीरे-धीरे अपने ख्यालातों को मुकम्मल अल्फाज़ भी देने लगी

घर बेशक शेरो-शायरी की रवायतों से अनजान न था, लेकिन उस दौर में भी एक लड़की का महफिलों की तरफ रुख करना किसे गवारा होता। सख्त पाबंदियां लगी, संगीत औऱ शेरो-शायरी से दूरी शकीला को रास न आई और उनकी तबियत बहुत खराब हो गई, इलाज करने वाले डॉक्टर ने भी आखिरी कोशिश के तौर पर घरवालों को उनपर लगी पाबंदियां हटाने को कहा… बस फिर क्या था, शकीला बानो ने फिर पीछे मुड़कर वापस नहीं देखा।

शकीला बानो की मंच पर अदाएं , उस दौर में चर्चा का सबब बनी रहीं, उस पर उनकी हाज़िर जवाबी, और फिर उनकी नफासत भरी, हकीकत भरी शेरो-शायरी… जितनी दिलकश उनकी अदाएं थीं… वो उतनी ही .. बेबाकी से कव्वालियों के बीच लतीफे भी सुनाती थीं…

शकीला बानो भोपाली का भोपाल से बंबई पहुंचना… जैसे उनकी किस्मत में लिखा था, या फिर यूं कहें कि फिल्मों में उनका आना भी एक निहायत ही खूबसूरत इत्तफाक रहा… फिल्म नया दौर की शूटिंग चल रही थी, मध्य प्रदेश के बुधनी गांव में… बारिशों का दौर था, शूटिंग रुक-रुक कर चल रही थी, लिहाजा एक कव्वाली का प्रोग्राम रख दिया गया… जंगल के बीच, महफिल सजी, और शकीला बानो भोपाली ने उन लम्हों को अपनी अदाओं और कव्वालियों से इस कदर रौशन किया कि हर शख्स उनका मुरीद हो गया। दिलीप कुमार को उनका अंदाज़ इतना पसंद आया कि उन्होंने खास तौर पर उनसे कहा… आपकी जगह बंबई में है… और उन्हें बंबई आने का न्यौता दिया। फिल्म शूटिंग के दौरान की ये महफिल आखिरकार फिल्मी दुनिया में उनकी आमद का जरिया भी बनी। दिलीप कुमार के साथ-साथ, बीआर चोपड़ा, वैजयंती माला और जॉनी वॉकर जैसे सितारे मध्य प्रदेश के एक गांव में सजी इस महफिल की इस सितारा शायरा की अदायगी के फैन हो गए।

उनकी बेमिसाल आवाज़ ने उन्हें अव्वल दर्जे की कव्वाल बनाया तो उनकी लाजवाब शेरो-शायरी ने उन्हें एक ऐसा मुकाम दिलाया जो परदे और पाबंदियों से निकल कर किसी महिला के लिए उन दिनों हासिल करना एक ख्वाब की ही तरह था… कव्वाली के मंच पर पुरुषों का बोलबाला था, किसी लड़की के लिए वहां नाम कमाना वाकई नामुमकिन ही था… लेकिन शकीला बानो उस दौर में महिलाओं के लिए एक मिसाल बनीं… बेहद कम उम्र से ही उन्होंने शेरो-शायरी में जो महारत हासिल कर ली, वो वक्त बीतते-बीतते और ज़हीन, नफीस और मकबूल होती गई। गीत औऱ ग़ज़ल को शकीला शायरी की जान मानती थी…

70 का दशक आते-आते वो पूरे देश में बेहद फेमस हो चुकी थीं—आलम ये था कि देश के कोने-कोने में उनकी कव्वाली की डिमांड तेज हो गई थी—और लोग उनकी आवाज सुनने के लिए मुंहमांगा पैसा देने को तैयार रहते थे—शकीला बानो ऐसी कव्वाल थीं कि जिनके दीवाने सिर्फ देश में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी थे….उनकी अदायगी और हुनर के कद्र दां पूर्वी अफ्रीका, इंग्लैंड और कुवैत समेत कई देशों में मौजूद थे—उनकी कव्वाली के फ़न का जादू ही ऐसा था कि उनकी आवाज लोगों के दिलोदिमाग पर छा जाती थी

शकीला बानो भोपाली ने फिल्‍मी जि़ंदगी में 32 फिल्‍मों में अभिनय किया और इन फिल्‍मों में 22 गाने गाए. तीन फिल्‍मों में उन्‍होंने बतौर सिंगर पा‍र्ट‍िसिपेट किया और चार गाने और कव्‍वाली गाए. एक फिल्‍म में गीत लिखा और गाया भी. एक फिल्‍म में उन्‍होंने संगीत भी दिया और दो गीत या कहें कव्‍वाली गाई भी. उनकी प्रमुख फिल्‍मों में 1976 में हरफन मौला ,1974 में हमराही 1971 में डाकू मानसिंह , 1970 में दस्‍तक , 1970 में ही मंगू दादा, टारज़न और जि़आरत गहे हिंद 1969 में गुंडा और, सखी लुटेरा 1968 में सीआईडी एजेंट, 1966 में नागिन और सपेरा, रूस्‍तम कौन , सरहदी लुटेरा, टार्जन और जादुई चिराग़ चिराग , 1965 में ब्‍लैक एरो शामिल हैं

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खैर ….कव्वाली की विधा में शकीला ने नाम और शोहरत दोनों कमा लिए थे—शकीला के बारे में मशहूर लेखक और शायर जावेद अख्‍तर कहते हैं शकीला बानो की तुलना न्‍यूटन और आइंस्‍टीन से की जा सकती है। उन्‍होंने मौज़ूदा दौर की कव्‍वाली को ईज़ाद किया, दरयाफ्त किया और उसे परवान चढ़ाया। इस तरह वो आज की कव्‍वाली की आविष्‍कारक हैं मशहूर लेखक खुशवंत सिंह की नज़र में शकीला कुछ यूं थी.. शकीला को छोड़कर कोई दूसरा मर्द, औरत और राजनीतिज्ञ ऐसा नहीं है, जो हज़ारों श्रोताओं को घंटों अपने कब्‍ज़े में रख सके और वो भी कई-कई यादों के साथ।

शकीला बानो भोपाली के बारे में भोपाल के मशहूर शायर अख्तर सईद खां ने कहा था शकीला एक लकीर की तरह भोपाल की सरज़मीं से उभरी और देखते ही देखते शोहरत के आसमान तक पहुंच गई। लेकिन उसे देखने के लिए सर को इतना ऊंचा नहीं उठाना पड़ता कि टोपी कदमों में आ गिरे।

हिन्दी और उर्दू के कहानीकार कृष्ण चन्दर कहते हैं कि शकीला बानो खुद भी एक कामयाब शायरा हैं और उनकी गजलों का रिवायती सरापा, क्लासिकी मिजाज उस हुस्न का मजहर है जिसने उर्दू गजल को सदियों से जिंन्दा रखा है।

मशहूर लेखिका और कहानीकार इस्मत चुगताई कहती हैं कि उसकी शायरी में नजाकत है, सादगी है, धीमा सा तरन्नुम है। वहीं मशहूर फिल्मकार ख्वाजा अहमद अब्बास कहते हैं कि शकीला बानो भोपाली एक शायराना दिल की मालिक भी हैं। मैंने इनका कलाम पढ़ा है और मुझे उनके कई अशआर बहुत अच्छे लगते हैं
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शकीला बानो का निधन, साल 2002 में हुआ, लेकिन जीने की आरज़ू वो उससे बहुत पहले ही छोड़ चुकीं थी… साल 1984… 2 और 3 दिसंबर की दरमियानी रात… भोपाल में हुई गैस त्रासदी ने उस पर गहरा असर डाला… न आवाज़ का साथ रहा… न सेहत का… जिस शहर से उनकी पहचान बनी… जिस शहर ने उन्हें जीने की नई राह दिखाई, उस शहर को इस हाल में देखना, शकीला बानो भोपाली के लिए कम तकलीफदेह नहीं था… ज़िंदगी उसके बाद वो ज़िंदगी न रही…


रिवायतों और तहज़ीब के शहर भोपाल से निकल कर शकीला बानो भोपाली ने जो नाम कमाया, जो पहचान बनाई, उस पर किसी को भी रश्क हो सकता है… लेकिन खुद शकीला बानो ने इस शोहरत को कभी खुद पर हावी नहीं होने दिया। चाहने वालों को उन्होंने कभी रुसवा नहीं किया, कद्रदानों की मोहब्बत को उन्होंने भी बखूबी निभाया, कव्वाली को नवाबों की महफिल से आम आदमी तक पहुंचाया, एक अलग पहचान दिलाई… हिंदुस्तान की पहली महिला कव्वाल… हरदिल अज़ीज़ शायरा… शकीला बानो भोपाली… का ज़िक्र आज भी उन महफिलों को रौशन कर देता है… जिन महफिलों की वो कभी शान हुआ करती

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