शकील बदायूंनी…..एक ऐसा शायर जिसने जिंदगी और मोहब्बत के गीत लिखे…एक ऐसा गीतकार जसने संगीतकार नौशाद के साथ एक से बढ़कर एक गीत बॉलीवुड को दिए..ऐसे गीत जो आज भी युवा से लेकर हर वर्ग तक गुनगुनाता है..ऐसे नगमे जो आज भी प्यार करने वाले गुनगुनाते हैं..3 अगस्त 1916 को उत्तर प्रदेश के बदायूं में जन्मे शकील बदायूंनी को परिवार में धार्मिक माहौल मिला….इसका गहरा असर उन पर जीवन भर रहा…धार्मिक संस्कारों की वजह से ही उन्होंने कई कालजयी गीतों की रचना की…केवल ये गाना ही नहीं उन्होंने बैजू बावरा का ये प्रसिद्ध गाना भी लिखा था जो आज भी लोग गुनगुनाते हैं
उस दौर में जब अधिकांश शायर गरीबों, गुलामों, मजदूरों, किसानों और जुल्म के शिकार लोगों के हालात पर लिखा करते थे तब शकील उन शायरों में शामिल थे् जो जिंदगी और मोहब्बत की शायरी करके भी लोगों के दिल में समाए थे,,शकील ने जब फिल्मी दुनिया का रुख किया तो पहली फिल्म 1947 में मिली दर्द..। इसके सभी गीत न सिर्फ उस वक्त हिट रहे। बल्कि इतने सालों बाद भी इस फिल्म का एक गीत गाना सुपर डुपर हिुट है
अफसाना लिख रही हूं दिले बेकरार का”ये गीत आज भी भुलाए नहीं भूलते….फिल्म दर्द के संगीतकार थे नौशाद और यहीं से शकील बदायूंनी का नौशाद साहब ऐसा राफ्ता बना जो एक बेजोड़ जो़ड़ी के तौर पर बॉलीवुड में जाने जाना लगा …
नैट-
मोहब्बत और जिंदगी पर शकील जीवन भर लिखते रहे…. 1961 में आई फिल्म घराना का ये गीत भी… आज प्रेमिका की खूबसूरती के लिए प्रेमी गाते हैं…और इस गीत के लिए उन्हें पुरस्कार भी मिला ना केवल मोहब्बत..बल्कि जिंदगी के फलसफा को भी उन्होंने अपने नगमों में उतारा.. दुख के बाद आने वाला सुख कितना अहम होता है उसको भी एक गीत के जरिए उन्होंने मदर इंडिया में बताया…इन सब के अलावा उन्होंने एक से एक बेहतरीन नगमे लिखे जो आज भी कालजयी है
शकील ने नौशाद के बाद सर्वाधिक हिट गीत संगातकार रवि के लिए लिखे। ‘चौदहवीं का चांद’, ‘दो बदन’, ‘घराना’, ‘नर्तकी’, ‘फूल और पत्थर’ जैसी म्यूजिकल हिट फिल्में रवि और शकील की जोड़ी के खाते में ही जाती हैं।
शकील साहब को तीन बार लगातार फिल्म फेयर अवार्ड मिला. इसमें दो बार ‘चौदहवीं का चांद’ और ‘घराना’ के लिए रवि के संगीत में यह उपलब्धि हासिल हुयी।कहते हैं कि शकील बदायूंनी… बहुत शौकीन मिजाज व्यक्ति थे। वे खास पकवान बनाने के लिए बावर्ची लखनऊ से बुलाते थे। शिकार खेलने के लिए नौशाद सहित कई फिल्मी हस्तियां शकील के साथ जीप में सवार हो कर मुंबई से मध्य प्रदेश पहुंचती थीं।
जहां एक तरफ फिल्मों में शकील की लोकप्रियता बढ़ती जा रही थी, वहीं साहित्य की दुनिया में भी उनकी शोहरत खुशबू बन कर फैल रही थी।शकील अपने करियर की ऊंचाईयां सिक्का चल ही रहा था कि 54 साल की उम्र में टीबी के रोग की चपेट में आने से 20 अप्रैल 1970 को उनकी मौत हो गयी। शकील की रचनाएं आज भी ना जाने कितने होठों पर मचलती रहती हैं।