हिंदी सिनेमा में पांच दशक लंबे करियर में वो सुपरस्टार तो नहीं कहे गए, लेकिन जमाना उन्हें आज भी अदाकारी का सरताज कहता है….। परदे पर उनकी मौजूदगी बेहद सहज होती, लेकिन एक्टिंग देखते ही बनती थी….।वीर-रणबांकुरों के खानदान का वो नौजवान…सिर्फ परदे का हीरो नहीं था. असल जिंदगी में भी उनका हौसला किसी हीरो की ही तरह था…। तभी तो पिता ने नाम दिया था बलराज दत्त…. वो बलराज जो हिंदी सिनेमा के परदे पर सुनील दत्त के नाम से मशहूर हुए…।
फिल्मी हीरो की जानी मानी रूप-रेखा और परिभाषा से बिलकुल अलग थी उनकी शख्सियत. लेकिन अपने किरदारों के रूप में वो किसी हीरो से कम नहीं थे….।
नैट…सावन का महीना पवन करे शोर….अदाकारी का आसमान छूने का जज्बा सुनील दत्त की शुरुआती फिल्मों से ही दिखता है….।आंखों में इतना आक्रोश और जुबान पर इतना गुस्सा- सुनील दत्त के रूप में हिंदी सिनेमा के परदे पर हीरो का सबसे अलहदा अवतार था…।
यूं कहें कि सिनेमा का पहला एंग्री यंग मैन….। ये बात खुद अमिताभ भी मानते हैं, जो आगे इसी खिताब से मशहूर हुए. वो सुनील दत्त सिर्फ परदे के ही नहीं बल्कि असल जिंदगी के भी हीरो थे. इसी दम पर बंबई में उन्हें हीरो की पहचान मिली. इसी दम पर बंबई में प्यार मिला. लेकिन ये सबकुछ उनके लिए आसान नहीं था….।आज उनके गुजरे 19 साल हो गए हैं…लेकिन जमाने के लिए ये तय कर पाना मुश्किल है कि सुनील दत्त थे कौन….। एक अभिनेता…एक नेता, एक सामाजिक कार्यकर्ता या फिर एक उम्दा इंसान….। क्योंकि ये सभी खासियतें मिल कर जिस शक्सियत को बनाती थी वो थे सुनील दत्त…।उन्हें नरगिस एल्विस प्रेसली कहती थीं…। बेटे- बेटियां उन्हें सुपरडैड कहते थे….। वो डैड जो किसी भी मुश्किल के आगे टूटना नहीं जानता था….लेकिन ज़िंदगी सुनील दत्त साहब का इम्तिहान पर इम्तिहान लेती रही….।
बंबई आकर फिल्मी हीरो बनना मकसद नहीं था सुनील दत्त का. वो तो बड़ा बेटा होने के नाते घर चलाने के लिए पैसा कमाने आए थे . तब दत्त साहब का परिवार हरियाणा के मांडोली में रहता था. ये घर उन्हें बंटवारे के बाद पाकिस्तान में छोड़ आए जमीन-जायदाद के बदले मिली थी. सुनील दत्त का परिवार आजादी के पहले झेलम जिले के खुर्द गांव में रहता था. पिता रघुनाथ दत्त गांव के बड़े जमींदार थे. लेकिन पिता की अचानक मौत से पूरा परिवार संकट में आ गया…और परिवार चलाने की जिम्मेदारी बलराज दत्त पर आ गई…।मुंबई आने के बाद पहले उन्होंने बेस्ट बस में नौकरी की….फिर रेडियो सिलोन में काम किया…और रेडियो सिनोल में काम करने के दौरान ही उन्हें फ़िल्मों में काम करने की ऑफर मिला…।
जिस दौर में सुनील दत्त का बंबई आना हुआ था वो दौर दिलीप कुमार, देव आनंद, राजकपूर और अशोक कुमार जैसे सुपरस्टार्स का था. फिल्में इनके नाम से बनती और बिकती थी. जाहिर है, बलराज दत्त को अपनी मुकम्मल जगह बनाना आसान नहीं था….। पहली फिल्म रेलवे प्लेटफॉर्म में ही बलराज दत्त ने अपना नाम बदलकर सुनील दत्त रख लिया था. इसकी वजह थे बलराज साहनी, जो 50 के दशक में मशहूर हो चुके थे. लेकिन उन्हें तो अपने नाम की अलग पहचान चाहिए थी. आखिर डाइरेक्टर रमेश सहगल भी बलराज की बजाय सुनील नाम पर तैयार हो गए. लेकिन रमेश सहगल भी ये देखकर हैरान थे, कि सिर्फ नाम भी नहीं बदला, सुनील के साथ परदे पर अदाकारी का अंदाज भी बदल गया. 29 जनवरी 1955 को जब रेलवे प्लेट फॉर्म रिलीज हुई, तब बंबई के सभी फिल्मी मैगजीन्स ने डेब्यूटेंट सुनील दत्त की तारीफ भले की….लेकिन कामयाबी अब भी सुनील दत्त से कोसों दूर थी…।
1956 में आई एक ही रास्ता अदाकारी के लिहाज से सुनील दत्त की पिछली दोनों फिल्मों रेलवे प्लेटफॉर्म और कूंदन से बेहतर थी. लेकिन फिल्म में सुनील दत्त को अपना हुनर दिखाने का पूरा मौका नहीं मिला. इसी बीच उन्हें महबूब खान की फिल्म मदर इंडिया का ऑफर मिला. बड़ा डाइरेक्टर और बड़ी स्टारकास्ट देखकर सुनील दत्त ने फिल्म फीस तय किए बिना ही साइन कर ली….।शूटिंग के वक्त भी उन्हें अपना किरदार राजकुमार और राजेन्द्र कुमार के मुकाबले बड़ा लगा, हालांकि एडिटिंग में उनके कई बेहतरीन सीन हटा दिए गए. लेकिन नरगिस के बाद अगर किसी ने फिल्म में छाप छोड़ी तो वो थे सुनील दत्त..।
1 मार्च 1957 को मदर इंडिया के सेट पर जो हादसा हुआ, उसमें अगर सुनील दत्त ने अपनी जान की परवाह की होती, तो नरगिस की जान खतरे में पड़ सकती थी. वो सीन आग का था, जिसमें कूद कर नरगिस को अपने बागी बेटे बिरजू की जान बचानी थी. लेकिन हुआ उल्टा. अचानक हवा का रुख बदल गया और नरगिस खुद आग की लपटों में घिर गई. गनीमत थी, सुनील दत्त बगल वाले घास के ढेर में छिपे थे. नरगिस को खतरे में देख उन्होंने फौरन आग के बीच छलांग लगा दी और रियल लाइफ में हीरो की तरह नरगिस को बचाकर बाहर लाए…ये देख नरगिस का दिल उनके लिए जान की परवाह न करने वाले उस हीरो पर क़ुर्बान हो गया…
। सेट पर लगी उस आग की तपिश में दो दिलों की धड़कन एक हो गई. नरगिस को यकीन हो गया, कि आगे की ज़िंदगी गुजारने के लिए उन्हें सुनील दत्त जैसा सच्चा हमसफ़र नहीं मिलेगा, तो सुनील दत्त को भी नरगिस में अपनी महबूबा का अक्स नज़र आया…।
मदर इंडिया फ़िल्म के रिलीज़ होने से पहले ही दोनों शादी के बंधन में बंध गए, लेकिन महबूब ख़ान के कहने पर दोनों ने अपनी शादी को 3 महीने तक छुपाए रखा…।मदर इंडिया के बाद सुनील दत्त साधना और सुजाता जैसी फिल्मों की शूटिंग में बिजी हो गए…। 1959 में आई बिमल राय की फिल्म सुजाता उन्हें संजीदा अदाकार के तौर पर स्थापित कर गई….।नरगिस और सुनील दत्त शादी को लेकर ये भी कहा गया कि एक सुपरस्टार से न्यूकमर की शादी ज्यादा दिनों तक नहीं चलेगी. लेकिन दोनों की सच्ची मुहब्बत ने जमाने भर के ऐसे दावों को गलत साबित किया. शादी के बाद नरगिस दत्त परिवार के साथ 1 साल तक वन बेडरुम फ्लैट में रही…।
सुनील दत्त की कामयाबी के साथ बसेरे की रंगत ही कुछ और हो गई. जुलाई 1959 में बेटे संजय के जन्म और एक साल बाद खुद की प्रोडक्शन कंपनी अजंता आर्ट्स….। दत्त परिवार के लिए हर रास्ता मनचाहा बन चुका था. अजंता आर्ट्स की पहली फिल्म मुझे जीने दो सुनील दत्त ने बड़ी सोच समझ कर प्लान की थी. उन्हें याद था मदर इंडिया का वो गुस्सैल बिरजू दर्शकों को पसंद आया था. मुझे जीने दो में सुनील दत्त ने उसी बिरजू को विस्तार दिया. रोल चुंकि डकैत का था, सो इस पर रिसर्च के लिए चंबल घाटी भी गए. उस वक्त तक दिलीप कुमार और राजकपूर जैसे स्टार भी डाकुओं को किरदार बनाकर गंगा जमना और जिस देश में गंगा बहती है जैसी फिल्म बना चुके थे. लेकिन मुझे जीने दो की कशिश सबसे अलग थी….।मुझे जीने दो के लिए दत्त साहब को पहली बार बेस्ट एक्टर का फिल्मफेयर अवार्ड मिला. अपने बैनर से बाहर की भी फिल्मों में भी सुनील दत्त को शानदार रोल मिलने लगे थे.
बीआर चोपड़ा की फिल्म वक्त और इसके बाद आई फिल्म खानदान और मिलन में भी दत्त साहब को खूब सराहना मिली….।लेकिन 1968 में आई फिल्म पड़ोसन का कोई जवाब नहीं. नरगिस नहीं चाहती थी सुनील गंवार का वो रोल करें. इससे सुनील दत्त की रोमांटिक इमेज को नुकसान पहुंचता. लेकिन सुनील दत्त ने कहा- रोने-धोने वाले किरदारों से तंग आ गया हूं। अब मैं एक मजेदार कॉमेडी करना चाहता हूं….। और सुनील दत्त का ये कॉमीक अवतार में लोगों को खूब गुदगुदाया….।लेकिन सुनील दत्त की ज़िंदगी में एक वक्त ऐसा भी आया जब उनकी उनकी खुशहाली को नियति की नज़र लग गई…। बेटा ड्रग्स का आदी हो गया और नरगिस कैंसर की शिकार हो गईं…। नर्गिस के जाने के बाद सुनील दत्त का संघर्ष दोहरा हो चला था. परिवार के साथ सामाजिक जिम्मेदारियों में भी अकेले पड़ गए थे. 1981 में वो बंबई के शैरिफ बने थे, तो 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस की तरफ से चुनावी मैदान में उतर गए….।
बांद्रा सीट से जीत कर वो सांसद बन गए. लेकिन कभी खुद को नेता नहीं माना. वो खुद को देश का सेवक ही समझते रहे. पंजाब में आतंकी हिंसा के बीच उन्होंने उन्होंने बंबई से अमृतसर तक 78 दिनों की मुश्किल पैदल यात्रा की थी. आतंकी खतरे को देखते हुए उन्हें बुलेटप्रूफ जैकेट पहनने की सलाह दी गई थी, लेकिन दत्त साहब को ये मंजूर नहीं था….।90 के दशक तक दत्त साहब सबकुछ ठीक कर चुके थे. लेकिन बंबई सीरियल ब्लास्ट में बेटे संजय का नाम आने के बाद सबकुछ बदल गया….। बेटे के हाथ में हथकड़ियां देखकर उन्हें ऐसा लगा जैसे सारा सम्मान और आदर बिखर गया….। उस दौर में दत्त साहब ने संजय की पाकीजगी का फैसला अदालत के इंसाफ पर छोड़ दिया. 1993 के बाद फिल्में छोड़ दी. लेकिन 10 साल बाद जब वो परदे पर लौटे तब वही बेटा सामने था- उनके बनाए उसूलों पर चलने वाला मुन्नाभाई….।दत्त साहब 2004 का लोक सभा चुनाव भी जीते, लेकिन वो दिन देखने तक जिंदा नहीं बचे, जब संजय के दामन से 1993 का वो धब्बा धुला….। 6 अप्रैल 2005 को 24 दिन की दांडी यात्रा से लौटने के बाद से उनकी तबीयत बिगड़ती चली गई और 25 मई 2015 की सुबह दुनिया को अलविदा कह गए..